आदिवासी समाज में लुप्त हो रही है पूड़ा में अनाज रखने की प्राचीन परंपरा

 आदिवासी समाज में लुप्त हो रही है पूड़ा में अनाज रखने की प्राचीन परंपरा









हो समाज में आर्थिक समृद्धि व  प्रतिष्ठा का पैमाना भी था पूड़ा

santosh verma

Chaibasa : कोल्हान आदिवासी समुदाय में प्राचीनकाल से चली आ रही धान को पूड़ा में बांधकर रखने की परंपरा अब लुप्त होने के कगार पर है। इसकी जगह अब बड़ी प्लास्टिक बोरियों ने ले ली है। पूड़ा (बांदी) हो समाज में न केवल संस्कृति का हिस्सा रहा है, बल्कि यह पारिवारिक समृद्धि व प्रतिष्ठा का भी पैमाना रहा है। लेकिन अब यह परंपरा लगभग लुप्त होने के कगार पर है। 

 क्या कहते हैं जानकार किसान

मतकमहातु के किसान बाबू देवगम,  नितिन देवगम, जांबीरा देवगम आदि ने बताया कि पहले जमाने में हमारे समुदाय में धान को लंबे समय तक सुरक्षित रखने के लिये पूड़ा (बांदी) का प्रयोग होता था। यह पुआल की मोटी रस्सी से बनता था। इसमें दो से दस क्विंटल तक अनाज को स्टोर किया जाता था जो लंबे समय तक सुरक्षित रहता था। केवल धान ही नहीं, रहड़, मूंग, उड़द, चना, कुलथी आदि को भी पूड़े में ही बांधकर सुरक्षित रखने की परंपरा रही है। बाबू देवगम ने बताया कि पूड़ा बनाने की तुलना में प्लास्टिक बोरियों में धान रखना अब अधिक सरल है। जबकि पूड़ा बनाने में जहां मेहनत अधिक लगती है वहीं इसके लिये मजदूरों की जरूरत पड़ती थी। इससे पूड़ा की लागत भी बढ़ जाती है। जबकि प्लास्टिक बोरियां सर्वसुलभ हैं और उपयोग में सरल भी है। कीमत भी कम है। समय की भी बचत है। पूड़ा बनाने की परंपरा लुप्त होने के पीछे एक कारण धान की पैदावार में पहले की तुलना में वर्तमान में कमी आना भी है। पहले अधिक पैदावार होती थी, तो उसको लंबे समय तक स्टोर रखने की जरूरत पड़ती थी। अब पैदावार ऐसी नहीं है तो पूड़ा का उपयोग कम हो गया। 

हो समाज में सदियों से आर्थिक समृद्धि व प्रतिष्ठा का पैमाना भी रहा है पूड़ा

अनाज को पूड़ा में बांधकर रखने की जब परंपरा प्रचलित थी, तब हो समाज में यह सामाजिक समृद्धि व प्रतिष्ठा का पैमाना भी माना जाता था। यानी जिनके पास पूड़ों की संख्या जितनी अधिक होती थी,  समाज में उनकी प्रतिष्ठा उतनी ही अधिक होती थी। साथ ही उनको आर्थिक रूप से समृद्ध भी माना जाता था। सामाजिक प्रतिष्ठा भी इसी से तय होती थी। इसकी पूरी सामाजिक मान्यता थी। वैवाहिक रिश्तों को जोड़ने में भी यह पूड़ा बड़ा कारक था। तब नौकरी को तवज्जो बेहद कम दी जाती है। गांव में किसके पास कितनी जमीन है, इसका अनुमान पूड़ों की संख्या से भी लगाने की परंपरा रही है। इससे संचित धान की मात्रा का अंदाजा लगाया जाता था। और इसके रिजल्ट के आधार पर भी वैवाहिक रिश्ते जोड़े जाते थे। लेकिन अब यह परंपरा खत्म हो रही है।

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